प्रेरणादायी कविता लेबल असलेली पोस्ट दाखवित आहे. सर्व पोस्ट्‍स दर्शवा
प्रेरणादायी कविता लेबल असलेली पोस्ट दाखवित आहे. सर्व पोस्ट्‍स दर्शवा

सात


वेडात मराठे वीर दौडले सात

“श्रुती धन्य जाहल्या, श्रवुनी अपुली वार्ता
रण सोडूनी सेनासागर अमुचे पळता
अबलाही घरोघर खऱ्या लाजतील आता
भर दिवसा आम्हा, दिसू लागली रात”
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ १ ॥

ते कठोर अक्षर एक एक त्यातील
जाळीत चालले कणखर ताठर दील
“माघारी वळणे नाही मराठी शील
विसरला महाशय काय लावता जात!”
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ २ ॥

वर भिवयी चढली, दात दाबिती ओठ
छातीवर तुटली पटबंधाची गाठ
डोळ्यांत उठे काहूर, ओलवे काठ
म्यानातून उसळे तलवारीची पात
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ३ ॥

“जरी काल दाविली प्रभू, गनिमांना पाठ
जरी काल विसरलो जरा मराठी जात
हा असा धावतो आज अरि-शिबिरात
तव मानकरी हा घेऊनी शिर करांत”
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ४ ॥

ते फिरता बाजूस डोळे, किंचित ओले
सरदार सहा, सरसावूनी उठले शेले
रिकिबीत टाकले पाय, झेलले भाले
उसळले धुळीचे मेघ सात, निमिषांत
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ५ ॥

आश्चर्यमुग्ध टाकून मागुती सेना
अपमान बुजविण्या सात अर्पूनी माना
छावणीत शिरले थेट भेट गनिमांना
कोसळल्या उल्का जळत सात, दर्यात
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ६ ॥

खालून आग, वर आग, आग बाजूंनी
समशेर उसळली सहस्र क्रूर इमानी
गर्दीत लोपले सात जीव ते मानी
खग सात जळाले अभिमानी वणव्यात
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ७ ॥

दगडांवर दिसतील अजून तेथल्या टाचा
ओढ्यात तरंगे अजूनी रंग रक्ताचा
क्षितिजावर उठतो अजूनी मेघ मातीचा
अद्याप विराणि कुणी वाऱ्यावर गात
वेडात मराठे वीर दौडले सात… ॥ ८ ॥


कवी - कुसुमाग्रज
कवितासंग्रह - विशाखा

खूब लड़ी मर्दानी वह ........

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
दुःखाला सामोर जाण्यातच खर कौशल्य असत ...
त्यात जमिनीवरच राहून आकाशात उडायचं असत ...
आपल्या मनासारख कधीच घडत नसत ...
हीच माझी ओळख अस नशीब म्हणत असत ....
उन एकट कधीच येत नाही
ते सावलीला घेऊनच येत
फक्त ....
सावलीला प्रकट व्हायला ...
झाडाचं अस्तित्व लागत ....
चांदण्याला महत्व अंधारामुळेच येत
दुःखाच अन सुखाच हेच नात असत .......
दुखं नसेल आयुष्यात तर ....
सुखाची मजा घेता येईल का ....?
ओल न होता कधी
पावसात भिजता येईल का.....?

देवाची साथ



भूताचे भविष्य अन् भविष्याचे भूत

एकदा एक भूत
आलं पहायला भविष्य
ज्योतीष्याच्या दारात
भेटले त्याचे शिष्य

त्यांनी त्याला हटकलं
त्याला ते खटकल
थांब म्हणता म्हणता
ते दारातून सटकल

घरात थोडं भटकल
एवढ्यात उंदराच पिटुकल
होत मोठ धिटुकल
त्याच्या पायाला चिटुकल

म्हणत,
भूता तुझी स्वारी
ज्योतीष्याच्या घरी
आली कशी बरी
सांगशील का खरी?

भूत म्हणाल,
जगण्याशी तुटल नातं
जीवनाच बंद खातं
मग भविष्य पहायला
आपलं काय जातं

हसत हसत फिदीफिदी
उंदीर म्हणाला त्याच्या आधी
गोष्ट सांगतो साधीसुधी
नको लागू उद्याच्या नादी

मी होतो जंगलचा वाघ
जंगलात एकदा लागली आग
प्राण्यांची झाली भागंभाग
मला आला भलताच राग

ज्योतीषाला दाखवून पंजा
म्हटलं, विचारतो जंगलचा राजा
सांग भविष्यात काय माझ्या
सांग नाहीतर करीन फज्जा

सांगितलं त्यान सारं खरं
कानात शिरलं भयाण वारं
कितीही झाडली जरी खुरं
तरीही झालं त्याचच खरं

दिसतो मी उंदीर जरी
आरशात पहा मला खरी
बिंबात दिसते वाघोबाची स्वारी
पाहून वाटते भीती उरी

भीती उराताली जाईना
मला पाहवेना आईना
उंदीरपण काही जाईना
वाघपण पुन्हा येईना

तर सांगतो दोस्ता भूता
तुझी तर विझली चिता
मग कशाला अहो करता
उगा उद्याची भलती चिंता

भविष्य म्हणजे उद्याचं भूत
कशाला त्याशी जमवायच सूत
अन् आजच व्ह्यायचं उद्याचं दूत
वर्तमानाच्या मानगुटी भविष्याचं भूत

करायला गेल तर ...........

तोंड देता आले तर
संकटही शुल्लक असत

चालायला गेलं तर
निखाऱ्यांही फूले होतात

बघायला गेलं तर
आयुष्यही खूप सोपे असत

जगायला गेलं तर
दु:खातही सुख असत

वाटायला गेलं तर
अश्रूंतही समाधान असत

पचवायला गेलं तर
अपयशही सोपे असत

कोलंबसाचे गर्वगीत

हजार जिव्हा तुझ्या गर्जु दे, प्रतिध्वनीने त्या समुद्रा, डळमळु दे तारे
विराट वादळ हेलकावु दे पर्वत पाण्याचे ढळु दे दिशाकोन सारे

ताम्रसुरा प्राशुन मातु दे दैत्य नभामधले, दडु द्या पाताळी सविता
आणि तयांची अधिराणी ही दुभंग धरणीला, कराया पाजळु दे पलिता

की स्वर्गातून कोसळलेला, सूड समाधान मिळाया प्रमत्त सैतान
जमवुनि मेळा वेताळांचा या दरियावरती करी हे तांडव थैमान

पदच्युता, तव भीषण नर्तन असेच चालु दे फुटु दे नभ माथ्यावरती
आणि तुटु दे अखंड उल्का वर्षावत अग्नी नाविका ना कुठली भीती

सहकाऱ्यांनो, का ही खंत जन्म खलाशांचा झुंजण्या अखंड संग्राम
नक्षत्रांपरी असीम नीलामध्ये संचरावे, दिशांचे आम्हांला धाम

काय सागरी तारु लोटले परताया मागे, असे का हा आपुला बाणा
त्याहुन घेऊ जळी समाधी सुखे कशासाठी, जपावे पराभूत प्राणा?

कोट्यवधी जगतात जीवाणू, जगती अन् मरती जशी ती गवताची पाती
नाविक आम्ही परंतु फिरतो सात नभांखाली निर्मितो नव क्षितिजे पुढती

मार्ग आमुचा रोधू न शकती ना धन ना दारा घराची वा वीतभर कारा
मानवतेचे निशाण मिरवू महासागरात, जिंकुनी खंड खंड सारा

चला उभारा शुभ्र शिडे ती गर्वाने वरती, कथा या खुळ्या सागराला
"अनंत अमुची ध्येयासक्ती अनंत अन् आशा किनारा तुला पामराला!"


कवी - कुसुमाग्रज
कवितासंग्रह - विशाखा

झेपाऊन तरी बघ

मित्रा जरा आभाळात, झेपाऊन तरी बघ
तुझ्या पंखातले बळ, आजमाऊन तरी बघ

कवेत तुला घ्यायला, आतुर आहे आकाश
चारी दिशांना पसरलाय, छान सोनेरी प्रकाश

धुक्यात हरवलेल्या तुला, आज हे दिसत नाही
धीर धर थोडा काळ, धुके कायमचे असत नाही.

टिकुन रहा धिरोदात्तपणे, घेत यशाची चाहुल
पचऊन सारे नकार, उचल एक-एक पाऊल

पाखरु आणि गरुड

एकेकाळी मी अंड्यात होतो, मझ्यासारखीच अंडी आजूबाजूला होती
त्या अंड्यांना चीकटून रहाताना, जवळजवळ रहायची सवय जडली होती

रहायला छान घरट होतं, उबेला आईचे पंख होते
वडीलांचा आदर्श घेउन, माझ्या पंखात बळ येत होते

एक दीवस सुर्याची आस धरुन मी आकाशात झेपावलो
उडता उडता लक्षात आले की आता मी एकटाच रहीलो

राजासारखं उडता उडता मला खाली जग दिसलं
फाजील गर्व जागा झाला आणी इथेच मनं फसलं

इतर पाखरही जवळ आली , आम्हालाही शिकव म्हणाली
बळकट पाखर जवळ रहीली, अशक्त मत्र हीरमुसुन गेली

असेच कही दीवस उडत थव्याबरोबर उंच गेलो
अचानक एक गरुड आला व मी पुरता गोंधळलो

गरुडाला यापुर्वी मी कधी पाहीलच नव्हतं
आकाशात मझ्यावर कोणी राहीलच नव्हतं

गरुडाची उंची पाहुन मी बीचकलो तोराच बीथरला
मन सैरभैर झालं आणि सगळा माज उतरला

तो म्हणाला बरोबर चल तुला उंच आकाश दाखवतो
अथांग आकाशात तरंगायच कस ते मी तुला शिकवतो

पुढे कधीतरी चालुन तु ही एक गरुड होशील
पण एक वचन दे, इतर पाखरांनाही वर नेशील

जीवन असे जगावे

असे जगावे छाताडावर आव्हानाचे लावुन अत्तर
नजर रोखुनी नजरे मध्ये आयुष्याला द्यावे उत्तर

नको गुलामी नक्षत्रांची भीती आंधळी ताऱ्यांची
आयुष्याला भिडतानाही चैन करावी स्वप्नांची
असे दांडगी ईछा ज्याची मार्ग तयाला मिळती सत्तर
नजर रोखुनी नजरे मध्ये आयुष्याला द्यावे उत्तर

पाय असावे जमिनीवरती कवेत अंबर घेताना
हसू असावे ओठांवरती काळीज काढुन देताना
संकटासही ठणकावुन सांगावे आता ये बेहत्तर
नजर रोखुनी नजरे मध्ये आयुष्याला द्यावे उत्तर


करुन जावे असेही काही दुनियेतुनी या जाताना
गहिवर यावा जगास सा-या निरोप शेवट देताना
स्वर कठोर त्या काळाचाही क्षणभर व्हावा कातर कातर
नजर रोखुनी नजरे मध्ये आयुष्याला द्यावे उत्तर

-गुरु ठाकूर.